Wednesday, March 11, 2009

भिक्षुक

कंकाल मात्र वह शेष, धरा पर विचरण करता
यदा कदा जो अपने क्षुधित उदर को भरता
जीवन में उसके नाममात्र भी हास नही है
कहीं भूत या भविष्य में उल्लास नही है
आशा की कोई रश्मि जिसे ना मार्ग दिखाती
उसके जीवन में नीरवता ही राग सुनाती




Tuesday, February 24, 2009

सभ्यता ???

हम सभ्य हैं
क्यूंकि -
हम छुरी कांटे से खाते हैं,
तन की महक को डियो से छुपाते हैं;
लोगों के बीच जोर से हँसते नहीं हैं,
और खांसने से पहले कहते हैं - एक्स्क्युस मी!!

Tuesday, February 10, 2009

तुम

जब तुम न थे
कुछ भी न था
ना खुशी थी
गम भी न था
रातें नहीं बेचैन थीं
दिन भी नहीं तन्हा से थे
तुमने हमें बदला है ज्यों
हम भी नही यों हम से थे
तुम मिले तो हमने जाना
रातों को जगना क्या है
छत पर चलकर रात-रात भर
तारों को गिनना क्या है
महफ़िल में तेरी यादों में
खोकर तन्हा होना क्या है

यादों में खोकर इक पल हँसना
और इक पल रोना क्या है

चाहता हूँ

चाहता हूँ मैं बहुत
कुछ दूर उड़ना चाहता हूँ
इस फलक पर इस ज़मीं पर
नाम लिखना चाहता हूँ
हर सुबह मैं सोचता हूँ
आज इक शुरुआत कर दूं
आज कुछ ऐसा करुँ मैं
आज ही इतिहास रच दूं
पीढियां जो याद रखें
एक ऐसा काम कर दूं
अमन जो लाये जहां में
वो कोई तरकीब कर दूं

ना कोई लूटे किसी को
ना किसी को डर किसी से
हर कोई मेहनत करे
और रात को सोये ख़ुशी से
सोचता हूँ पर क्या मुमकिन
है जहां को यूँ बदलना
जहर जो दिल में घुला है
उस जहर में फूल खिलना
नहीं आसान जानता पर
हाथ पर क्यों हाथ रखूँ
बदल सकता नहीं सबको
खुदी को क्यूँ न बदल दूं
इस समर में आज मैं
अभिमन्यु बन कर कूद जाऊं
मर गया तो भी दिलों में
दीप आशा के जलाऊँ
पर सोचता हूँ एक पल
ये बलि कहीं न व्यर्थ जाए
मृत्यु से भय पलायन का
भाव लोगों में न लाये
इसलिए मैं स्वयं को
शस्त्रास्त्र से सज्जित करूंगा
प्रेम से और शक्ति से
मैं शान्ति को मंडित करूंगा
ले मन में यह संकल्प
मैं रणनीति का अनुसरण करता
किन्तु कुछ पल बाद ही
आलस्य मन में चरण रखता
साथ में शंकाओं का भी
जाल मुझको बाँध लेता
दिव्स्वप्न का सागर मुझे
निद्रा जगत में खींच लेता
स्वप्न में भी मैं सभी को
सुखी करना चाहता हूँ
और जगकर स्वप्न को
फिर सत्य करना चाहता हूँ
मैं सभी के संग
कुछ पल शांत जीना चाहता हूँ
कुछ देर चिंता और भय से
परे उड़ना चाहता हूँ।